सखी! जो रूठे स्याम सुजान।
कहा बस मेरौ, सुखी रहैं वे मो प्राननि के प्रान॥
रूप-सुधा-रस मधुर पान-हित नित्य नयन-मन तरसत।
आकुल प्रान रहन नहिं चाहत, छिन-छिन मरनहि करषत॥
जो सरीर पाँवर प्रीतम ने दीन्हौ या बिधि त्याग।
सो अब निस्चय ही छूटैगौ महामंद, हतभाग॥
एक बात सखि! मेरी रखियो, पूरी करियो साध।
स्याम तमाल-तरोवर दीजौ बाहु-लता सौं बाँध॥
नित्य सँभारत रहियो, जासौं खान न पावैं काग।
कबौं आइ प्रिय के देखत पुनि प्रान उठैंगे जाग॥