सखी! तुम इतनौ करियो काम।
मेरे मृत सरीर की या विधि करियो गति ललाम॥
प्रानाधिका सखी तुम सगरी मंत्र दीजियो कान।
‘कृष्ण’ नाम अति मधुर सुनइयो, जब निकसैं ये प्रान॥
मरनोर भी कृष्ण-नाम की अमित मधुर धुनि करियो।
लिखियो ‘कृष्ण’ नाम सब अंगनि, मन महँ धीरज धरियो॥
मत जमुना-जल देह डारियो, मती जरैयो आग।
ब्रज-रज में लुढक़ावत ही लै जइयो देय सुभाग॥
दोनों बाहु बाँध रखियो तुम सुचि तमाल की डाल।
कृष्ण-बरन अति रुचिर परस करि तनु नित होय निहाल॥
प्रतिदिन सब मिलि आय देखियो पावन ऊषा-काल।
क्रीिडा-भूमि स्याम की रज लै तिलक दीजियो भाल॥
जुगल-स्रवन मधु नाम सुनइयो ‘कृष्ण-कृष्ण’ अभिराम।
कृष्ण-कृष्ण कौ कीर्तन करियो चहुँ दिसि नित्य ललाम॥
भुज-ललाट-मुख-उर पै लिखियो प्रियतम कौ प्रिय नाम।
तुलसी-माल गले पहिरैयो हरिप्रिया सुख-धाम॥
कबौं जो प्रियतम कछु कारन तैं पुनि वृन्दावन आवैं।
दरस-परस-संजीवनि पावत देह प्रान पुनि छावैं॥
या विधि मैं पुनि जीवन-धन कौं सकृत देखि जो पान्नँ।
चरन पकरि राखौं नित संनिधि करि अति विनय मनान्नँ॥