सच्चाई इतनी साफ और निष्कपट होती है कि
उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं होता
बयाँ किए जा रहे किसी किस्से के दरमियाँ
कई बार अतिशयोक्ति मिश्रित बातों में से भी
हम सच्चाई को चीन्ह ही लेते हैं बड़बोलों की बातों में से
भीड़ को संबोधि्त
वक्तव्यो-वाक्यों में घुली-मिली सच्चाई की पहचान
हमें सबसे आसान लगती है और
उतनी ही मुश्किल होती है
जब चावल में कंकड़ के बराबर
झूठ को ढूंढ निकालने के लिए
हमें सच्चाई के तमाम दानों को चुनना पड़ता है कई बार
सच्चाई
स्त्री का वेश धरकर पृथ्वी पर उतरी थी
गुज़री जब पुरुष के करीब से,
देखा
तब तक वह आध सच ही पहचानता था
सवारी करता फिरता था आधे झूठ की
झूठ का पुलिंदा पीठ पर लादे हुए
जिसके बिना सरक जाती
उसके पांवों के नीचे की ज़मीन
और देखा
उसके कुल अपराधों का वज़न
उसके कद के बराबर के
पुरुषों के वज़न के ठीक बराबर मालूम होता था
और देखा
पुरुष को कड़वे स्वाद की पहचान ही नहीं थी
बगीचे के तमाम फलों को चखने के बावजू़द
सच्ची औरत ने यह सब देखकर
तहस-नहस कर दिया
फलों-फूलों के रंग-बिरंगे गुच्छों को
और कहा : मैं आई हूँ
मुझे पहचानो / जानो / समझो
रहा पुरुष स्त्री के साथ
सूरज के उगने से ढलने तक
और फिर रहा भोर होते तक भी
और फिर
सुनाया उसने फरमान सच्चाई को भाँपते हुए ...
पुरुष ने क्या कहा, क्या आप बता सकते हैं !