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सच्चा प्रेम / ‘हरिऔध’

 
अमरलोक से आ उतरी सी एक अलौकिक बाला।
क्षितितल पर निज छवि छिटकाती करती रूप उँजाला।
कलित किनारी बलित परम कमनीय वसन तन पहने।
विलसित हैं जिसके अंगों पर रत्न-खचित बर गहने।1।

रखे कमल-सम दायें कर पर लोटा सजल निराला।
लिए वाम-कर में कुसुमों की थाली अनुपम आला।
जैसे ही निज कान्त सदन से पुलकित बाहर आई।
वैसे ही एक मूर्ति अलौकिक सम्मुख पड़ी दिखाई।2।

था उसका अभिराम श्याम तन कोटि-काम-मद-हारी।
जिस पर नव विभूति विलसित थी भव-विभूति से न्यारी।
शिर पर मंजुल जटा-छटा थी तन पर था मृग-छाला।
कंबु मनोरम मृदुल गले में थी विराजती माला।3।

सकमंडल कर में लकुटी थी कानों में मुद्राएँ।
अंकित थीं सुविशाल भाल पर रुचिर तीन रेखाएँ।
विकच-नील-अरविन्द-विनिन्दक थी मुख-इन्दु-निकाई।
युगल भौंह ने जिस पर उपमा अलि-अवली की पाई।4।

अनुरंजित अनुराग-लाग में डूबे सहज फबीले।
रतनारे, न्यारे, कजरारे, थे युग नयन रसीले।
ललित अधर पर विलस रही थी हँसी सरस अभिरामा।
अंग अंग थी सुछबि छलकती देख ललकतीं बामा।5।

तिरछी आँखों से विलोक कर यह मूरत मन-हारी।
चकित हुई मृग-शावक-लोचनि विकच बनी उर क्यारी।
उठे न पाँव, पधार सकी नहिं पड़ी प्यार के पाले।
श्याम स्वरूप अनूप रूप ने औचक फंदे डाले।6।

चकित, थकित, पुलकित, नवला को देख श्याम-वपु बोले।
अपनी रुचिर वचन-रचना में सरस सुधा रस घोले।
ऐ विधि की कल कीर्ति-लता की कुसुमावलि में आला।
जग-ललामता कोमलता की कान्ति-विधायिनि बाला।7।

मानव-रत्न कौन है वह, तू है जिसके रँग-राती।
जिसके हित पूजने उमा-पति प्रति वासर है जाती।
होगा बड़ा भाग-वाला वह, मैं हूँ महा अभागा।
विधि-वश सुर-दुर्लभ विभूति से जो मम मन अनुरागा।8।

देख सामने खिली मालती मैं हूँ बल बल जाता।
पर उसके सँग जी बहलाने पल भर भी नहिं पाता।
मैं हूँ वह प्यासा, समीप जिसके है रस का प्याला।
किन्तु उसे छू सकने तक का पड़ा हुआ है लाला।9।

उमड़ घुमड़ है घन सनेह का दया-वारि बरसाता।
पर निज चातक को दो बूँदें देते है अकुलाता।
पारावार अपार रूप का लहराता है आगे।
पर अनुकूल लहर पा करके भाग न मेरे जागे।10।

कल मलयानिल अति समीप से बहुधा है बह जाता।
किन्तु कभी भी मम ही तल को शीतल नहीं बनाता।
यह प्रपंच अवलोक जगत का मेरा जी अकुलाया।
योगी बन मैं बन वन घूमा अंग भभूत रमाया।11।

किन्तु चित्त ने चैन न पाया मन भी हाथ न आया।
टली न आधि, समाधि लगी नहिं, मिटी न ममता माया।
आसन मार रोक मन को जब मैं हूँ ध्यान लगाता।
तब उसका ही रम्य-रूप मम उर में है खिल जाता।12।

कोमल किसलय, कल कुसुमवलि, मंजुल वंजुल कुंजें।
पारावत केकी-पिक-संकुल-मुखारित बिपुल-निकुंजें।
उस ललामता खनि की मुझको प्रति-पल याद दिला के।
परमाकुल करती हैं कितनी ललित कला दिखला के।13।

रजनि सुन्दरी जब नखतावलि मुक्तमाल है पाती।
जब चाँदनी मिस मृदु मुसकाती, है विधुबदन दिखाती।
तब मैं पुलकित क्या होऊँगा अति विचलित हूँ होता।
बड़े वेग से बह जाता है उर में बहु दुख-सोता।14।

सरस पवन जब सन सन चलकर है सुर मधुर सुनाती।
तब हो सुरति विभूषण-धवनि की भर आती है छाती।
प्रात:काल मृदुल रवि कर जब हैं कमलिनि को छूते।
तब होता हूँ विपुल विकल ऑंसू चख से हैं चूते।15।

किसी काल में जैसे तन को नहीं छोड़ती छाया।
निकल नहीं सकता वैसे ही उर में रूप समाया।
सुर-दुर्लभ विभूति को मुझ सा पामर जन नहिं पाता।
दिवि-ललाम-भूत ललना से क्या है कपि का नाता।16।

चरम शान्ति की मूर्ति सुशीले तू बतला इतना ही।
कैसे शान्ति मिलेगी मुझको क्यों होगी चित-चाही।
तू है सरल, शिरोमणि तू है प्रेम-पंथ-पथिक की।
इसीलिए हूँ दवा पूछता तुझसे हृदय-बिथा की।17।

निज-कर-कमल राजते जल लौं तू उर तरल बनावे।
फिर उसकी सनेह-धारा सों सारा ताप नसावे।
कर की सुमनवती थाली लौं सुमनवती वन बाले!
मुझ ऊबे, वियोग वारिध में डूबे को अपना ले।18।

जैसे मान सके मेरा मन वैसे इसे मना दे।
अधिक क्या कहूँ मेरी बिगड़ी जैसे बने बना दे।
इतना कह कर मौन हुआ वह प्रेम-पंथ-मतवाला।
ललना के तन-मन-नयनों पर जादू डाल निराला।19।

मुदित दिशाएँ हुईं, मंजु लतिकाएँ मृदु मृदु डोलीं।
खिले प्रसून, बेलियाँ विकसीं, चिड़ियाँ स्वर से बोलीं।
इसी काल का चित्र मनोहर यह सामने विलोको।
उसमें चित्रकार कर-कमलों का कौशल अवलोको।20।

प्रेमिक की सुन प्यारी बातें प्रेम रंग में डूबी।
पहले हुई अतिचकित बाला फिर चंचल हो ऊबी।
जिसकी प्रीति-लाभ हित प्रतिदिन था पुरारि को पूजा।
जिसके तुल्य आँख में उसकी था न अवनि में दूजा।21।

उसको निज अनुरक्त देख यों देह-दशा वह भूली।
प्रेम-उमंग-रंग-रंजित हो ललित लता लौं फूली।
फिर प्रतिपल अति पुलकित होती छबि विलोकती वाँकी।
उसने उसी सलिल-सुकुसुम से प्रियतम की पूजा की।22।

जो दो उर थे संगम-कामुक पडे प्रेम के पाले।
वो यों आज मिले दिखला कर अपने ढंग निराले।
जिस पर जिसका सत्य प्रेम भूतल में है हो जाता।
है सन्देह न कुछ भी इसमें वह उसको है पाता।23।