सच तो यह है
हम सब ही अपराधी हैं
यह जो सूरज
चमक रहा है जलसे में
इसमें हिस्सा, मानो, बस्ती भर का है
सपने में अपने हिस्से से
हम ख़ुश हैं
यह सपना तो, भाई, पूरे घर का है
अलग-अलग
सबकी इच्छाएँ आधी हैं
जलसाघर के नीचे जो सोए
वे भूखे हैं
यह भी हमको नहीं पता
मीनारों के साए और हुए लंबे
घर बौने हैं
यही हमारी रही ख़ता
हदें साँस की
हमने ख़ुद ही बाँधीं हैं
चिनगारी बोकर
केसर की क्यारी में
हमने चाहा महक हमारी बनी रहे
ज़हर-बुझी घाटी
हमने ही सिरजी है
और चाहते उसमें अमृत-धार बहे
हमने झूठी
उलटबासियाँ साधी हैं