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सच में, भाऊ / कुमार रवींद्र

सच में, भाऊ
गली हमारी बड़ी पुरानी
 
ज्यादातर मकान हैं इसमें
बने लखौरी के
बाबा आदम के युग के
दरवाजे पौरी के
 
दादी कहती थीं
उनकी हर रोज़ कहानी
 
एक-एक कर
सभी गली को छोड़ गये हैं
नदी किनारे
मॉल कई बन गये नये हैं
 
कुआँ गली का
माँ कहतीं - अमरित है पानी
 
टूट रही छत
मलबा ढेरों घर के कोने में
ठाकुरद्वारे में प्रसाद
बँटता था दोने में
 
मस्जिद की
सीढियाँ, सुनो, जानी-पहचानी
 
आंगन-सहन खुले रहते थे
हम जब छोटे थे
अपने ही पड़ोस में रहते
पंडित मोटे थे
 
सुनी उन्हीं से थी
हमने संतों की बानी