सजनी, यह क्या / कुमार रवींद्र

सजनी, यह क्या
तुमने आँके ठूँठ पेड़ पर
             ढाई आखर हैं
 
फूला-फला नहीं है यह तो
कई बरस से
हुलसा भी यह नहीं
तुम्हारे दरस-परस से
 
खोखल है यह
भरे हुए इसके सीने में
            केवल पत्थर हैं
 
धूप-छाँव का खेला भी
जो अभी हुआ है
उसने भी तो
इसके मन को नहीं छुआ है
 
नीड़ नहीं चिड़ियों के
कोई भी इस पर
          खाली सारे कोटर हैं
 
यह फूला था
कभी तुम्हारे छूते ही तो
तब वसंत होता था
इसके बूते ही तो
 
तब हँसता था -
सिसक रही अब उन्हीं दिनों की
               यादें भीतर हैं

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