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सड़क सोचती है / रमेश तैलंग

पान चबाने वाले मुँह से
पीक मार चल देते हैं।
जले हुए सिगरेट के टुकड़े
कहीं डाल चल देते हैं।

रद्दी कागज, खाली बोतल
फेंक-फेंक चल देते हैं।
नज़र बचाकर या चुपके से
देख-दाख चल देते हैं।

साफ सड़क की झोली फिर
कूड़े से भरती जाती है।
नाक बंद कर अपनी-अपनी,
भीड़ गुजरती जाती है।

सड़क सोचती है-यदि कूड़ा
यूँ ही भरता जाएगा।
कूड़े में इंसान कहीं भी
नज़र नहीं फिर आएगा।