Last modified on 22 सितम्बर 2009, at 12:23

सदस्य:Sunil balani

नीरजजी की इस कविता ने हमेशा से मुझे बहुत प्रबावित किया है , क्योंकि यह मुझे इंटरनेट पे कहीं नहीं मिली, तो मैंने सोचा मैं ही इसे publish करुँ ताकि आप भी इन भावनाओं को महसूस कर सकें ...............

ओ हर सुबह जगाने वाले, ओ हर शाम सुलाने वाले दुःख रचना था इतना जग में, तो फिर मुझे नयन मत देता

जिस दरवाज़े गया ,मिले बैठे अभाव, कुछ बने भिखारी पतझर के घर, गिरवी थी ,मन जो भी मोह गई फुलावारी कोई था बदहाल धुप में, कोई था गमगीन छावों में महलों से कुटियों तक थी सुख की दुःख से रिश्तेदारी ओ हर खेल खिलाने वाले , ओ हर रस रचाने वाले घुने खिलोने थे जो तेरे, गुडियों को बचपन मत देता

गीले सब रुमाल अश्रु की पनहारिन हर एक डगर थी शबनम की बूदों तक पर निर्दयी धुप की कड़ी नज़र थी निरवंशी थे स्वपन दर्द से मुक्त न था कोई भी आँचल कुछ के चोट लगी थी बाहर कुछ के चोट लगी भीतर थी ओ बरसात बुलाने वाले ओ बादल बरसाने वाले आंसू इतने प्यारे थे तो मौसम को सावन मत देता

भूख़ फलती थी यूँ गलियों में , ज्यों फले योवन कनेर का बीच ज़िन्दगी और मौत के फासला था बस एक मुंडेर का मजबूरी इस कदर की बहारों में गाने वाली बुलबुल को दो दानो के लिए करना पड़ता था कीर्तन कुल्लेर का ओ हर पलना झुलाने वाले ओ हर पलंग बीछाने वाले सोना इतना मुश्किल था, तो सुख के लाख सपन मत देता

यूँ चलती थी हाट की बिकते फूल , दाम पाते थे माली दीपोंसे ज्यादा आमिर थी , उंगली दीप भुजाने वाली और यहीं तक नहीं , आड़ लेके सोने के सिहांसन की पूनम को बदचलन बताती थी अमावास की रजनी काली ओ हर बाग़ लगाने वाले ओ हर नीड़ लगाने वाले इतना था अन्याय जो जग में तो फिर मुझे विनम्र वचन मत देता

क्या अजीब प्यास की अपनी उमर पी रहा था हर प्याला जीने की कोशिश में मरता जाता था हर जीने वाला कहने को सब थे सम्बन्धी , लेकिन आंधी के थे पते जब तक परिचित हो आपस में , मुरझा जाती थी हर माला ओ हर चित्र बनने वाले, ओ हर रास रचाने वाले झूठे थी जो तस्वीरें तो यौवन को दर्पण मत देता

ओ हर सुबह जगाने वाले ओ हर शाम सुलाने वाले दुःख रचना था इतना जग में तो फिर मुझे नयन मत देता