सदियों
पुकारा तुम्हें
लक्ष्मण रेखा के पार से
खींचा था तुमने
सहसा घबरा
अनायास मुझे अपने
बहुत निकट पा
मेरी हर पुकार
तुम तक पहुँच कर भी
नहीं पहुँची
अनसुना किया सब
और सब सुनते भी रहे
दुविधाएँ, षंकाएँ भी तो
सब तुम्हारी थीं
तुम्हारी खींची
रेखा का मान रख
खड़ी रही मैं
सदियों
अपना ही उकेरी
सीमा रेखा लाँघ
आखि़र तुम आये
शायद मेरी
प्रतीक्षा का
मान रखने