Last modified on 19 अगस्त 2008, at 21:55

सदियों बाद / महेन्द्र भटनागर


सदियों बाद हिले हैं थर-थर
सामंती-युग के लौह-महल,
जनबल का उगता बीज नवल;
धक्के भूकम्पी क्रुद्ध सबल !

सदियों बाद मिटा तम का नभ,
चमका नव संसृति में प्रभात,
बीती युग-युग की मृत्यु रात,
डोला मधु-पूरित मलय वात !

सदियों बाद उठी है आँधी
कर आज दिशाएँ मटमैली,
धूल क्षितिज पर अहरह फैली;
शक्ति-विरोधी पंगु अकेली !

सदियों बाद हँसी है जनता
करने नवयुग की अगवानी;
जीवन की अभिरुचि पहचानी,
दफ़नाने को अश्रु-कहानी !

सदियों बाद जगा है मानव
अधिकारों की आवाज़ लगी,
सुन जग की जनता आज जगी
दुख, दैन्य, निराशा भगी-भगी !