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सदी के बीच में / महेश वर्मा

चीख़ें अभी बुझी नहीं हैं और माँस जलने की चिरायंध
किसी डियोडरेंट से नहीं जाने वाली,
पुराने ज़ख़्मों की बात करना फ़ैशन से बाहर की कोई चीज़ है-
हम दरवाज़ा बंद करना चाहते हैं
उस ओर और इस ओर के लिए ।

कोई क्या करे लेकिन इन बूढ़ों का
जो मृत्यु के भीतर रहते थे और अब
उसे पहन लिया है त्वचा की जगह ।

एक और बूढ़ा जो हमेशा पेट के बल सोता है धरती पर
वह अपने सीने के छेद में मिटटी भर लेना चाहता है-वहाँ अब बारूद है ।
एक और बूढ़ा बचपन का गीत याद करना चाहता है और
उल्टी करने लगता है इतिहास।

हमारे पास पुराने घर हैं जहाँ
दीवारों से राख झर रही होती है और खाली कमरों में भी नही गूँजती आवाज़-

हम क्या करें इसका जहां गुलाब रोपने की खुरपी
निकाल लाती है एक कोमल हडडी ।

हमारे पास मोमबत्तियाँ हैं और दवाइयाँ

हम दरवाज़ा बंद करना चाहते हैं
अपनी ओर और उस ओर के लिए ।