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सन्तरा / जीवनानंद दास

देह छोड़ एक दिन चला ही जब जाऊँगा ;
आऊँगा लौटकर नहीं क्या मैं पृथ्वी पर ?
आऊँ तो आऊँ मैं
किसी एक जाड़े की रात में,
प्राणों के लिए विकल परिचित एक
रोगी के बिछौने के पास ही —
रखा हुआ टेबल पर अधखाया ठण्डा
एक करुण सन्तरा बनकर !