सन्त शिरोमणि! भक्त-प्रवर! हे गुण विवेक-रत्नाकर!
काव्य-जगत् की अमर ज्योति! हे कविकुल कमल-दिवाकर!
सत्य निष्ठ परमार्थ व्रती! हे कुशल मनोमल हारी!
सदय हृदय सारल्य-मूर्ति! हे अखिल विश्व-हितकारी!
मनुज रुप धर, देव! धरा पर नव आलोक बिछाने।
तुम आये थे, भ्रान्त जनों को सत्य मार्ग दर्शाने॥
आत्म-ज्ञान का तुमने ऐसा अनुपम दीप जलाया।
ठहर न पाई जिसके सन्मुख रंच कलुष की छाया॥
सद्गुरु ‘रामानन्द’ मिले तब धन्य स्वयं को माना।
भली भाँति मानव जीवन का मर्म त्वरित पहचाना॥
ध्यान-मग्न होकर बाहर का मन से मोह मिटाया।
घट के पट खुलते ही भीतर अपने प्रभु को पाया॥
चित्त वृत्ति सत्संग-रंग में रँगी निरन्तर रहती।
उर अन्तर में ज्ञान भक्ति की विमल जाह्नवी बहती॥
किया सगुण-निर्गुण का ऐसा सामंजस्य निराला।
सुलभ सभी के लिए मुक्ति का अनुपम मार्ग निकाला॥
जाति-पाँति से दूर रहे तुम मानवता-सुपुजारी।
फेली जगतीतल में अक्षय पावन कीर्ति तुम्हारी॥
अन्तर से अनुभूति पूर्ण जो निकली मधुमय वाणी।
बने महान ग्रहण कर उसको, जगती के लघु प्राणी॥
जय हे संत कबीर! तुम्हारा जन्म-दिवस जब आता।
श्रद्धा से हर भारतीय का मस्तक है झुक जाता॥