फिर इसी एकान्त सूने कगार पर
खड़े होकर
तुम्हें मैंने पुकारा ।
दूर पच्छिम क्षितिज पर
हरी-लालिम शान्ति में लिपटा हुआ
तकता हुआ सूरज।
चिन्तित व्योम के नीचे
मोड़ लेती, बाढ़ की
पेंग भरती घाघरा ।
फरहरे वाले शिवालय के बग़ल में
झुकी पीपल डाल
आचमन करती नदी का ।
कहाँ हो?
तुम कहाँ हो?