Last modified on 21 जून 2021, at 23:03

सन्नाटों में दीपते रतजगे / विमलेश शर्मा

रात के तीसरे पहर तक
आँखें खोजती रहती है वो पल
कि निमिष भर पलक कपाट भिड़ जाए

पर एक शोर मचता रहता है रात की निस्तब्धता चीर
जिसकी चोट कनपटी पर फड़क बन उभरती है
शोर, आहटों , पदचापों के बीच कोई बुदबुदाता है!

कि तुम्हें यूँ नहीं लौटना था!
कि तुम्हें यहाँ होना था!
कि तुम्हें जीने का सलीक़ा सीखना था!
कि तुम्हें प्रतिरोध करना था!
कि तुम्हें तुम्हारा मान रखना था!

इन प्रतिध्वनियों के कंपन में
हथेली को अपनी ही हथेली भली लगने लगती है
दोनों जुड़ती हैं और फिर एक खोज शुरू होती है
किसी छुअन के जीवाश्म की
जो घड़ीभर ही सही
इन सपाट पगडंडियों पर डबरे सा ठहरा तो था!

अब तक सुना था कि
भावनाओं का ज्वार दीवारों पर उलटता है
पर दीवार पर टँगी घड़ी की टिक-टिक
जाने कब दिल में धड़कने लगती है
डरती हूँ, सुनती हूँ और फिर सहलाती हूँ उस थाप को चुपचाप
जाग दवा थी कि नींद , यह एक पहेली ही रही

एन्टीडोट देती रही दोनों को चारागर समझ

दाव लगे
दोनों जीते
और आँखें हार
बुत बनी खड़ी रहीं!

दिमाग़ में एक शोर था
दिल में एक ग़ुबार
साँसें रेंगने लगी
धड़कन कम हुई फ़िर लगा कि रात होने को है
ठीक तभी एक चिड़िया खिड़की पर चहचहा उठी!