Last modified on 20 फ़रवरी 2009, at 22:34

सपना / केशव

इमारत की नींव खोदते हुए
वह एक सपना देखता है

उम्मीद है पैरों से चलता
बिना धूप पलता बहुरूपिये-सा
बार-बार प्रकट होता है सपना
बुझे चूल्हे के पास
जिनके लिए वह मिट्टी से
अपनी देह धोता है

रेगिस्तान में ओएसिस की तरह
सूखती घास को बसन्त बना देता है
रोज़-रोज़ पसलियों में पड़ने वाली
ठोकर की पीड़ा भुला देता है

झूठा है इमारत का मालिक
झूठी ठोकर की पीड़ा

सच्चा तो केवल सपना है
तभी तो हर फ्रेम में जड़ा
मुस्कराता दिखाई देता है

द्रौपदी के चीर की तरह
न खत्म होने दे जो इसे
उस प्रभु के हाथ खोजता है
और पता नहीं कब ईंट की जगह
जीवार में खुद को लगा देता है.