आँखों की पुतलियों
उंगलियों के पोरों और
होंठों की कंपन में
छलक आता
सपना का प्यार
कभी एकाग्र हो जाता
एक रोम-छिद्र पर
और कभी
व्योम के विस्तार में
फैलता जाता
सपना एक से प्यार करती है
कि बनी रहे
पीपल की छाँव
उठा रहे आशीर्वाद का हाथ
शाम होने से पहले
प्यार छाँटता रहे दाल
सपना दूसरे से प्यार करती है
कि उसके होंठों की प्रत्यंचा
ठीक धनुष पर
टंग जाती है
बजती रहती है
शरारती टंकार
उड़ती जाती
फूल-फूल तितलियाँ
सपना तीसरे से प्यार करती है
कि सावन में मुटियाए
बछड़े -सा
उठा-उठा रहता सिर
आँखों में तैर आते
सावनी निर्झर
हरी धरती और
नीला आकाश
सपना चौथे से प्यार करती है
कि बजता रहे
दो आत्माओं में
एक राग
बहती रहे रोशनी
आर-पार
लेकिन कल देर रात
जब मेरी कविता
ठीक चौराहे पर
अटक गई
तो सपना ने मुझे
सच-सच बताया
कि वह इन में से
किसी से भी
प्यार नहीं करती
वह तमाम दुनिया के साथ
प्यार करती है
महज़ एक पुरुष से
क्यों कि
वह एक स्त्री है
मार्च 1989