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सपना बुनती औरत / अनुपमा तिवाड़ी

एक औरत आईने के सामने बैठ
देखती है, अपने को
भरपूर नज़र से
ये खूबसूरती जो उसे आईने में दिख रही है
वो उसके सपने से बुनी है
वो ऐसी खूबसूरती के सपने और, और बुनना चाहती है
वो ऐसी खूबसूरती के खूब-खूब स्वेटर बुनना चाहती है
जी भर कर पहनना चाहती है, उन्हें
कभी-कभी दुनिया में तिरते खूबसूरती के डिज़ाइन उसकी आंखों में आ कर रुक जाते हैं
वो उन डिजाइनों से फिर नए सपने बुनने लगती है
पर कुछ हाथ उसकी सलाईयां छीन लेना चाहते हैं
उसकी ऊन के गोले को छुपा देना चाहते हैं
जिससे नहीं बुन सके, वो कोई सपना
कुछ आँखें कहती हैं,
क्या स्वेटर बुनना?
‘’बाज़ार में हर तरह का स्वेटर मिलता है,
जाओ और खरीद लाओ’’
पर वो जानती है कि,
जो सपना वो बुनेगी
वो किसी बाज़ार में नहीं मिलेगा
इसलिए वो बुनती है, सपने
वो फिर- फिर बनेगी सपने
वो एक नहीं,
अनंत सपने बुनेगी
वो इस प्रकृति की कृति को और आगे ले जाएगी आसमान तक
वो जानती है
कि, वो कितनी खूबसूरत कलाकृति है और
कला ही कला को गढ़ सकती है
मटमैले हाथ क्या कला रचेंगे?
वो रोक सकेंगे बस एक सपना बुनती औरत को