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सपना - सच / संगीता गुप्ता



सुबह
ताजगी नहीं
महसूसती हूँ
थकन
एक लम्बे युद्ध की

सोते वक्त सहेजती हूँ
अपनी मुट्ठियों में
औरतें
प्रेम,
सुख,
घर वैभव से सिझी
बच्चों की किलकारियों और
बुजुर्ग आषीशों से गूँजता

सोने से पहले
सरक जाती हैं पकड़ से
जीवन से भरी औरतें
दृष्य बदलता है


आतीं हैं
सिसकती
अनमनी
बुझी आँखों वाली औरतें
औरतें प्रेम से डरी

गोद में लिए समझदार हो गया बच्चा
कसे मुट्ठियां
घर बसाये रखने के लिए
युद्ध से लगाये बैठी
कल की सुनहरी उम्मीदें

सिहर जाती हूँ
देखते - देखते
भागने लगती हूँ
विपरीत दिशा में

सिलसिला
चलता है
भोर तक


आंख खुलती है
औरतें
हूबहू ऐसी भी नहीं हैं