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सपने / उमा अर्पिता

अनायास ही तुम्हारी यादें
चुपके से आ
मेरे कंधे पर
अपना सिर टिका देती हैं--
और उँगलियाँ
फिरने लगती हैं,
तुम्हारे बालों में!
ऐसे में तुम्हारी निश्चिंतता
बोने लगती है
आँखों में
अनगिनत सपने--
सपने, जो पानी के बुलबुले हैं/
सपने, जो रेत के घरौंदे हैं/
सपने, जो बस सपने हैं...!
सपने-ही-सपने
सुंदर-सलोने सपने
जाने-अनजाने सपने
कितने नादान हैं हम, जो
सपनों की दुनिया बसाते हैं/
सपनों के रंगमहल में बसते हैं/
सपनों को पालते हैं और
सपनों की गोद में पलते हैं!
क्या नहीं जानते कि
अगर सच हो जाते, तो
सपने, सपने क्यों कहलाते?