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सपने का अंत / गोबिन्द प्रसाद


कविता पढ़ते-पढ़ते अचानक
शब्द की सरहदों के पार
ध्यान में घिर आते हैं थके हुए सँवलाये चेहरे
धुँधलके से चले आते हैं भूल गयी शामों के वार्तालाप
फिर मोड़ पर घूम गया कोई चेहरा
जिसे न देख पाने का मलाल हसरत में बदल गया
फिर उभरते हैं चाय के ढाबों पर
काम करते हुए हाथ और डाँट से सहमे बच्चों के रुआँसे चेहरे
और धीरे-धीरे उनके अनकहे दु:खों में मैं शामिल होता जाता हूँ

बीच-बीच में हम में से कोई हँसना चाहता है ऐसी हँसी
जो तिल-तिल राख होते जाते बदन में
फूल खिला दे-चाँदनी रात में नहाया-सा
हँसी के दरमियान कितने दु:खों के तानपुरे आँखों में ही ठहर गये
उसने हँसी को बीच अधर में किसी टूटी हुई तान-सा
छोड़ा तो नहीं,हाँ,लय के आवर्तों को किनारे लाते हुए
सम को ढ़ूँढ़ते-पकड़ते बड़ी ख़ूबसूरती से
उस हँसी को अंजाम तक पहुँचा ही दिया
मैं सोचता ही रह गया ये सुर
कौन से राग में लगते हैं
समेटता हुआ पीछे छूटी हुई ज़िन्दगी का सामान
जो उसकी हँसी से बिखरता जाता था
जिसे सँभालता हुआ वह नज़र बचाकर
देख लेता था दोस्तों को देखते हुए
और फिर लौट आता था अपनी हँसी में
जैसे कोई खण्डहर अपनी विरूपता में अकेला होता जाता है
झरता जाता है खिर-खिर रेत-मिट्टी-गारे-सा

बड़े-बड़े पत्थर घिस जाते हैं देखते-देखते
हवा भी आकर कैसे पलट जाती है खण्डहर होते जाते संसार से
नेपथ्य में नायक बैठा रह गया है रोता हुआ
सर को घुटनों में छुपाए
इस तरह एक सपने का अन्त होता है
और तालियाँ बजाते-बजाते दर्शक बदल जाते हैं
थियेटर की ख़ाली कुर्सियों और सन्नाटे में

ख़ाली कुर्सियाँ,रेंगता हुआ सन्नाटा और बेआवाज़ टूटते सपने:
बेरेंग होती ज़िन्दगी के रंग तमाम उम्र इस क़दर चीख़ते हैं
कि समुद्र की कोख सूनी हो जाती है
और तुम जानना चाहते हो कि राग कौन सा था!