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सपने सब बीत गए / अमरेन्द्र

सपने सब बीत गए
दुख आए नए-नए।

रेत बना जलता ही रहता है सूखा तन
अब ना सुगन्धित है मन का यह चन्दन-वन
फागुन तो रूठा ही
जेठ-पूस हाथ लगे
कातिक दिन रीत गए।

आँखों का मीन लिए प्यास मरूँ पानी बिन
साज लगे सूना-सा एक वह कहानी बिन
डाके हैं रात-रात
अधर जैसे, कोयल काग
जबसे तुम मीत गए।

बची हुई शेष नदी सुख की भी लीन हुई
साँसों पर ऐसी ही पीड़ा आसीन हुई
होरी जब हारी तो
कजली भी हार गई
समदन तुम जीत गए।