सदियों से औरत देती आई है
चुंगी
अपनी देह की,
चुकाती आई है मुआवज़ा
अपने औरत होने के अपराध का
सूरज की तरह खटती रही है उसकी रोशनी
अन्धकार से अपने वजूद की रक्षा के लिए
कई बार उसके दुख का संचरित लावा
झरता है एक सघन नींद के सपनों में,
इतिहास के किसी उपनिवेश से
और प्रतिरोध की एक नदी बनकर,
बहने लगता है
समय के मौजूदा साँचों को तोड़कर,
और कई बार सिर्फ़ जारी रहता है
उसका संघर्ष, उन सपनों के लिए
जो अब भी देखती है वह
अचानक लापता हो गई उस बेचैनी के लिए,
जो सचमुच ज़रूरी है सपनों के लिए।