Last modified on 22 फ़रवरी 2023, at 23:23

सफरचन्द / कुमार कृष्ण

कोटगढ़ से कोल्हापुर पहुँच कर
मैं कब सफरचन्द हो गया मैं नहीं जानता
सेब से सफरचन्द बनने के खेल को
नहीं समझ पाया आज तक सावड़ा का अनंत राम।
तुकाराम पाटिल दस फुट के फासले से
सूंघता है मेरी खुशबू
निहारता है मुझे बार-बार
मन-ही-मन होता है खुश
उसके पूरे परिवार को हमेशा रहता है मेरा इन्तजार
वे हर त्यौहार पर सोचते हैं-
एक दिन आएगा सफरचन्द
किसी मेहमान की तरह उनके घर
अनंतराम का पहाड़ कहता है मुझे सेब
तुकाराम पुकारता है सफरचन्द कह कर
मैं एक की उम्मीद दूसरे का सपना हूँ
मैं जितनी बार आता हूँ तुकाराम के सपनों में
उतनी ही बार वह मुझसे पूछता है एक ही सवाल
तुम बड़े घरों में ही क्यों रहते हो
कभी तो आओ हमारे पास
कभी तो सुनो छोटे घरों की दास्तान
ज्यों-ज्यों लम्बा होता गया मेरा सफर
त्यों-त्यों बढ़ती गई मेरी कीमत मेरी औकात
रामपुर से रत्नगिरि
कश्मीर से कन्याकुमारी
पांगी से पूना तक मैं बस बिकता चला गया
मैं देखता रहा चुपचाप-
कैसे तय करता है बाजार किसी की औकात
बाजार ने सिर्फ और सिर्फ देखी
मेरी खूबसूरत रंगत
वह नहीं जानना चाहता-
मेरे अन्दर हैं कितने पहाड़
कितनी नदियाँ कितने बादलों का आक्रोश
कितनी मधुमक्खियों का प्यार
मेरे अन्दर हैं कितने मौसम
आँधी-तूफान के बेशुमार डर
मैं अनंतराम के परिवार की-
सबसे बड़ी उम्मीद हूँ
मैं हूँ उसका सबसे बड़ा ईश्वर
उसका घर उस की रोटी
मैं हूँ उसकी जवान बेटी का पंख वाला घोड़ा
हर बार लुटते हुए देखता है मुझे
राजधानी के बाजार में अनंतराम
मैं नहीं जानता-
वह लिखा पाएगा कभी बाज़ार के खिलाफ़
अपनी एफ.आई.आर.
वैसे सदियों पुराना है राजा और बाजार का रिश्ता
मैं बाज़ार की कठपुतली उसका स्वाद हूँ
तुकाराम का सपना अनंतराम की जायदाद हूँ
लाल गेंद हूँ मैं
वाशिंगटन के बाजार में
प्रतिदिन उछाली जाने वाली
मैं ज़हर पीकर जीने वाली मिठास हूँ
पेड़ पर लटका धरती का विश्वास हूँ
कोई मुझे सफरचन्द कहे या कुछ और
मैं नंगे पाँव चलती-
तुकाराम के सपनो की आस हूँ।