(राग मलार-ताल कहरवा)
सबमें समझो एक आत्मा नित्य अभिन्न अमृत सत अद्वय।
सबमें है वह सहज आत्मा पूर्ण ज्ञान-चिन्मयानन्दमय॥
जीवन की सुविधा हो सबको, मिले सभीको ज्ञानानन्द।
कोई दुखी न रहें, सभी पायें सुख यथायोग्य स्वच्छन्द॥
यथाशक्ति यों सब जीवों का करना सुख-सपादन नित्य।
यही धर्म है, है अधर्म नित क्षुद्र अहं-गत स्वार्थ अनित्य॥