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सबल निबल / हरिऔध

जब न संगत हुई बराबर की।
तब भला कब बराबरी न छकी।
साथ सूरज हुए चमकता क्या।
चाँद की रह चमक दमक न सकी।

जो कड़ाई मिल सकी पूरी नहीं।
क्यों न चन्दन की तरह घिस जाँयगे।
आप हैं संगीन वैसे हम न तो।
संग कर के संग का पिस जाँयगे।

कर सबल संग कब निबल निबहा।
कब सितम के उसे रहे न गिले।
भेड़ियों से पटीें न भेड़ों की।
बाघ बकरे हिले मिले न मिले।

किस तरह उस की न छिन जाती कला।
कब सबल लायें न निबलों पर बला।
क्यों न जाती धूप में मिल चाँदनी।
चाँद सूरज साथ क्या करने चला।

जब निबल हो बने सबल संगी।
तब पलटते न किस तरह तखते।
तो चले क्यों बराबरी करने।
बल बराबर अगर नहीं रखते।

घट गये, मान घट सके कैसे।
बाँट में बाट जब समान पड़े।
तौल में कम कभी नहीं होंगे।
दो बराबर तुले हुए पलड़े।

पेड़ देखे गये नहीं पिसते।
जब पिसी तब पिसी नरम पत्ती।
लौ दमकती रही दमक दिखला।
बल गया तेल जल गई बत्ती।

चाल चल चल निगल निगल उन को।
हैं बड़ी मछलियाँ बनीं मोटी।
सौ तरह से छिपीं लुकीं उछलीें।
छूट पाईं न मछलियाँ छोटी।

बिल्लयों से चली न चूहों की।
छिपकली से सके न कीड़े पल।
कब निबल पर बला नहीं आती।
है बली कब नहीं दिखाता बल।

धूप जितनी चाहिए उतनी न पा।
निज हरापन छोड़ हरिआते नहीं।
उग रहे पौधे पवन अपनी छिने।
पास पेड़ों के पनप पाते नहीं।

हैं न काँटों से छिदी कब पत्तियाँ।
कब लता को लू लपट खलती नहीं।
मालिनों से कल न कलियों को मिली।
मालियों से फूल की चलती नहीं।

पत्थरों को नहीं हिला पाती।
पत्तियाँ तोड़ तोड़ है लेती।
है न पाती हवा पहाड़ों से।
पेड़ को है पटक पटक देती।

है हवा खेलती हिलोरों से।
बुलबुले के लिए बलाती है।
फूल को चूम चूम लेती है।
ओस को धूल में मिलाती है।

मारता कौन मारतों को है।
पिट गये कब नहीं गये बीते।
हैं हरिन ही चपेट में आते।
बाघ पर टूटते नहीं चीते।

संगदिल से मिला नरम दिल क्या।
प्रेम के काम का न है कीना।
संग टूटा न संग से टकरा।
हो गया चूर चूर आईना।