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सब्ज़े का बना था शमियाना / बाबू महेश नारायण

सब्ज़े का बना था शामियाना
और सब्ज़ ही मख्मली बिछौना;
फूलों से बसा हुआ वह था कुंज।
था प्रीत मिलन के योग्य वह कुंज;
परपोश हवा के रहने वाले
दिलकुश वह समाज गाने वाले
रहते थे अमन से उस चमन में
आदम को मिले न जो अमन अदन में,-
आती थी उस जगह से स्वाधीनता की ख़ुशबू;
स्वाधीन थे दरख़्त वो स्वाधीन थी लतैं,
स्वाधीन सुर थे चिड़ियों के, स्वाधीन थीं गतैं।
थी ग़रज़ वहै जगह फ़र्हत अफ़्ज़ा।
ताज़गी जी को बख़शे बाँकी हवा।
साया पड़ा था लेकिन सब हुस्न पर वहाँ के
रजनी ने काली चादर सब को उढ़ाई थी।