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सब्र मत कीजिए ...! / सुरेश स्वप्निल

दिलजलों का अभी ज़िक्र मत कीजिए
वस्ल की रात को हिज्र मत कीजिए

दोस्तों के दिलों का भरोसा नहीं
दुश्मनों की मगर फ़िक्र मत कीजिए

साथ चलना ज़रूरी नहीं था कभी
चल पड़े तो मियाँ ! मक्र मत कीजिए

कौन क्या खाएगा, शाह क्यूँ तय करे
रिज़्क़ पर इस क़दर जब्र मत कीजिए

सुन चुके शोर अच्छे दिनों का बहुत
अब किसी बात पर सब्र मत कीजिए

नस्ले-दहक़ान का रिज़्क़ तो बख़्शिए
ताजिरों को ज़मीं नज़्र मत कीजिए

गिर चुके हैं कई सर इसी शौक़ में
ताज-ओ-तख़्त पर फ़ख्र मत कीजिए !

( 2015 )