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सब कुछ मौन है / नरेश अग्रवाल

सुन्दर दृश्यों, चूमता हूं मैं तुम्हें
और तुम खत्म नहीं होते कभी
थक जाता हूं मैं
खत्म हो जाते हैं मेरे चुम्बन
कुहासा खोलता है दृश्य पर दृश्य
जैसे हम उनके पास जा रहे हों, लगातार
सारी खिड़कियां खुल गयी हैं मन की
इनमें सब कुछ समा लेने की इच्छा जागृत
कोई तेज घुड़सवार आ रहा है मेरी तरफ
और बड़ी मुश्किल से संभालता हूं मैं अपने आपको
इस उबड़-खाबड़ जमीन से।
यहां पत्थरों में अभी भी हल्की बर्फ जमी हुई है
भेड़ों के लिए आजाद दुनिया, हरे-भरे मैदान की
गड़ेरिया अपनी पुरानी वेष-भूषा में टहलता हुआ
करता है आंखों से मुझे मौन सलाम
और सब कुछ मौन है यहां
फिर भी मुझसे बातें करता हुआ लगातार