Last modified on 5 जुलाई 2011, at 13:25

सब गड्डमड्ड / माया मृग


एक तेज गति की बस में,
एक धीमा चलने वाला आदमी
एक ठहरी हुई सीट पर बैठा,
गति के सारे नियमों की
नाप-तौल करता है।

याद करता है वे तमाम सड़कें,
वे तमाम गलियां
जिन पर शायद आज भी
उकरी हुई हो-उसके पैरों की छाप !
कहाँ-कहाँ चला ?
(कागज निकाला, लिखने लगा)
एक बार, एक जगह की एक लकीर खींची।

कहाँ-कहाँ चूक हो गई
चूक वाली जगह पर क्रॉस लगाये
क्या-क्या करना है-
भविष्य की संभावनाओं पर गोेले बनाये।
लकीरें बहुत थीं,
चूकें बहुत थी,
गोले बहुत थे !

कहां क्या है-
कुछ समझ न पाया।

सब घुच्च-मुच्च हो गया।
खीजा-झल्लाया
सारे कागज पर काट-पीटकर
घुच्च-मुच्च को पक्का कर दिया।
कागज हाथ में लिया
मरोड़ा झंझोड़ा और
गेंद सी बनाकर हवा में उछाल दिया।
सब गड़बड़
सब उल्टा-पुल्टा

चलो दुबारा लिखते हैं-उसने सोचा
एक नये कागज पर-नये सिरे से ।
(मगर नहीं लिखा, बस सोचा)
कहीं कभी इसी तरह
मैंने भी नहीं लिखा, बस सोचा।
क्या तुमने नहीं सोचा ?
और तुमने सच कहना
क्या तुमने नहीं सोचा ?