Last modified on 24 मई 2016, at 22:42

सब जानथौं भी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

हे हमरॅ नजर संे
दूर होयकेॅ जिनगी जियै के इच्छा राखै वाला मीत
जानै छॅ
कैन्हें जागी गेलॅ छियै हम्में
ऊ के छेकै?
जें जगाय देलॅे छै हमरा
तोंय नै जानै छॅ पिया
हम्में जानै छियै
खाली हम्मी
आखिर ई केनां हुवेॅ सकॅे छेॅ कि तोंय जागॅ
आरो हम्में सुतली रही जाँव!

सच्चे तेॅ
हम्में दुनो एक दोसरा सें दूर होयकेॅ भी
दूर कहाँ छियै
के कहै छै?
हम्में तोरॅ नैं छेकियै
दूर-दूर रहि केॅ भी आत्मा के निकटता
मनॅ रॅ आसपास होबॅ
साथे-साथ तड़पबॅ
कि मिलना नै छेकै?
तोंही कहॅ पिया!
देहे तेॅ सब कुछ नै होय छै
देह तेॅ एक सहारा छेकै
खाली एक टा माध्यम
नदी के तेज धारा सें बचाय बास्तें
यं पारॅ सें वै पार उतारै वाली नाव
दूनू केॅ मिलाबै वाला पुल

जों देहे सब कुछ रहतियै
तेॅ ई मांटी में कैन्हें मिली जैतियै
अतना पर भी हम्में
कैन्हें नै समझेॅ पारी रहलॅ छी
कि हमरॅ ई छटपटैबॅ
हमरॅ ई तड़पबॅ
हमरॅ ई रतजग्गी के की माने?

समझै तेॅ सब छियै प्राण!
मतुर ई मन जे छेकै
एकरा के समझाबेॅ?
के समझाबॅे पारलेॅ छै एकरा?
के बाँधेॅ पारलॅे छै यै मनॅ केॅ।
आत्मा रॅ विशाल ज्ञान
मनॅ के नै कटै वाला तर्कॅ के सामना में
हरदम हारथैं रहलॅ छै
आरो ई देह
अवश रहलॅ छै हमेशा
मन आरो आत्मा के लीला-भूमि बनी केॅ।
हारै या जीतै छै
सुख-दुख, हर्ष आरो विषाद
पीड़ा, वेदना, जलन, आशा आरो निराशा
सभ्भे ठो भोगे छै खाली ई देहें।