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मुझमें विजेता बनने का
कोई गुण नहीं था
इसलिए मैंने घर नहीं छोड़ा
मेरा कोई घर नहीं था
क्योंकि मुझे नफ़रत थी दीवारों से
जितने अनैतिक काम दीवारों के
भीतर होते थे
उतने बाहर पूरी दुनिया में
मैंने जब खुली सड़क पर
ख़ुद को पाया
मैं बाहर था कईयों की हद से
मैंने देखा लोग आते-जाते कह रहे थे
यक़ीन मत करो
मैं ठिठका हुआ था
यक़ीन मत करो!
लेकिन मैं तो इसी पर था
अपने तमाम आदर्शों के साथ
फिर क्या था
दिन चढ़ता रहा
मैं वही था
आसपास लोग नहीं थे
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मैं पराजित भी हुआ तो किससे ?
आख़िरकार विजेता बनना कोई गुण नहीं
मैं तो इम्तिहाइयों में था
जबकि जानता था
मैं सडक नहीं हूं
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मेरे पास भूख के लिए
कोई अध्यात्म नहीं है
मैं इसके क़रीब जाता हूं
और शिकार होता हूं
हर बार होता यही है
मैं शिकार होता हूं
इस तरह मैं बचने लगता हूं
ख़ुद से, लोगों से
जो शिकस्त की तरह लगती है मुझे
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क्या मैं मरने वाला हूं ?
ऐसा कोई विचार नहीं फिलहाल मेरे पास
मैं जो पत्तों के रेशों से निकलता हूं
अलमारी के ऊपर रखी तस्वीर-सा गिरता हूं
टुकड़े-टुकड़े बिखरकर
देखता हूं अपने भीतर कई रोशनियां
मेरे पास न मृत्यु है न जीवन
मैं हूं रेशों के भीतर
और तस्वीर के खंडों में
जीवन ऐसा ही है आख़िरकार
उगना और बिखरना
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मेरे पास कहने की कितनी आज़ादी है ?
मैं बार-बार लिखने के लिए
नष्ट होता हुआ
देवताओं की ध्वजाओं
और पत्थर पर उकेरी गई मूर्तियों के लिए
मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं पत्थर
तुम अपने भीषण रुप में भी सुंदर थे
कहीं पहाड़, कहीं समुद्र थे
कहीं घर की देहरी में लेटा हुआ
शांत शिशु
मैं तुम्हें उसी रुप में देखता हूं
जो तुम लेकर आए
मैं तुम्हारी अनगढ़ता और ख़ामोशी
रखता हूं अपनी ज़िंदगी के लिए
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कविता एक रास्ता है
मैं नहीं चाहता सभी उस रास्ते पर जाएं
सभी के अपने रास्ते हैं
मैंने कपड़ों के भीतर झांकर देखा
गोदने थे मेरे नंगे शरीर पर
जिन्हें मिटा नहीं पाया
मैं अपने ही लिए लड़ा
मैं दो महान चीज़ों के बीच
लिखने और जीने के विभिन्न तटों पर
रंगता हुआ एक मछुआरा
जाल के तानों-बानों को
दुरुस्त करता हूं
मैं जानता हूं
मेरी कोई इच्छा नहीं है मछली फांसने की
मैं कविता लिखता हूँ
तोड़ता हूं अपना जाल
कविता सिर्फ़ तुम्हारे लिए