सड़क के दोनों किनारों
खड़े हैं
दसियों, बीसियों, तीसियों मंजिले मकान
मैं देखती हूँ इन्हें
और मापने लगती हूँ
किसी भविष्य के "थेह"
की ऊँचाई ।
खोदती हूँ उन्हें
और ढूँढ़ने लगती हूं किसी सभ्यता
के निशान
वह मिलती है मुझे
इन महलों की गहरी नींव में
क्षत-विक्षत
लहूलुहान ।
अनुवाद : मोहन आलोक