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समकालीन / शलभ श्रीराम सिंह

ये किसी मीनार-शीर्ष की भाँति
अपने ही होने के संदर्भ पर
टूटकर गिर जाना चाहते हैं ।
पीली घास की
चोटियाँ पकड़कर घसीटती हवाओं को
रोकने के लिए
इन्हें टूटकर गिरना ही होगा !
क्योंकि :
छिद्रों को समर्पित है इनका अन्त !

ये अपनी पूर्व तरलता को
पुनः प्राप्त होना चाहते हैं !
ताकि :
इन्हें आवश्यकताओं के अनुरूप
स्वीकारा जा सके !
इन्हें, इनके ही नाम से पुकारा जा सके !
ये, एक-अनेक के बीच रहना चाहते हैं !
धरती-आकाश में एक साथ बहना चाहते हैं !
इन्हें टूटकर गिरना ही होगा !
(१९६५)