हे गोविन्द
गोपियाँ मतवाली थीं
तुम्हारी बांसुरी की तान पर
चितवन और तुम्हारी छवि पर
दौड़ जा पहुचतीं थीं
प्राण प्रिय सखा के पास
रचाने रास
भूल कर लोक लाज
इतनी उत्तप्त कामनाओं के साथ
निर्लिप्त
सहजता से
सख्य भाव से रहना
कैसे संभव हुआ तुमसे ?
हे प्रेम विवश
है गोविन्द !
प्रेम निर्झर की तरह बहा तुमसे
नहीं आया ज्वार की तरह
जो भाटे मैं कुछ अधिक खो देता है
तुमने प्रेम किया उससे
जिसने देखा तुम्हारी तरफ
प्रेम के लिए
ग्वाल बालों से.गायों से
गोपियों से, राधा से
कुब्जा ,सुदामा
पांडवो से कर्ण से
गांधारी अश्वाथामा से
दुर्योधन से भी
हे पूर्ण पुरुष
हम जो प्रतिछ्ण पराजित हैं काम से
से सच कहो
कौन सा बशीकरण मंत्र था तुम्हारे पास
कैसे तुमने पूर्ण विजय पाई
काम पर ?
प्रेम का अकछय श्रोत
कहो पाया कैसे ?