मैने अक्सर देखा है माँ को
बापूजी का इन्तज़ार करते
खाने के लिए
चूल्हे के पास
बापूजी पर गुस्सा होते
कई बार पौंछे है मैंने
माँ के आँसू
अपने नन्हे हाथों से
इस भागमभाग में
ख़ुद बाप बनकर
सोचता हूं मैं
और तरसता हूं
कोई सांझ हो
जब
जीमूं सब के साथ
चूल्हे के पास बैठकर
पर कर नहीं पाता हूँ
क्या वाजिब था
बापूजी पर गुस्सा ?
मूल राजस्थानी से अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा