समय / शैलेन्द्र चौहान

गाँव की गलियों से गुजरता

महानगरों की धमनियों में तिरता

मनुष्यों की साँसों में

चढ़ता-उतरता

विशालकाय समुद्रों और

उन्नत शैलगिरि शिखरों को

चूमता-चाटता बढ़ता चला


किसी ने कहा यह समय मेरा नहीं

कोई दर्प से बोला समय मेरा है

गो समय नहीं किसी का


बीतता निर्बाध वह

देश और परिस्थितियों पर

छोड़ता अपनी छाप


जानता हूँ

उन अरबों, खरबों मनुष्यों को

जिन्होंने घास नहीं डाली

समय को


अपने कर्म में रत

वे उद्दमी मनुष्य

पहुँचा गए हमें यहाँ तक

जहाँ समय का रथ

अपनी बाँकी चाल से बढ़ा जा रहा है


कहते हुए कि, चेतो ---

वरना, विस्मृति के गर्त में

दफ़्‍न हो जाओगे नि:शब्द


आओ

मुझसे होड़ लो

जूझो टकराओ

और अपना देय पा जाओ

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