तुम्हारे छत पर
उतरती पीली चाँदनी में शफ्फाक क्या रहा
वह अँधेरों को नकारती
या
मन को ज़र्द करती
बहुत कोशिशें की यह समझाने की
नदी के जल का प्रतिबिंब अस्थिर है
छाया डोलती है
लेकिन मन ने कहा, कि
इसमें सच की परछाई है
तुम्हारी आँखों में धुंध के सिवा कुछ नहीं रहा
उसमें राह स्पष्ट नहीं
मंजिलें मुतासिर नहीं
अपनी राहों के शूल व पत्थर का मुझे भान है
उसे मेरे पाँव की उँगलियाँ टटोलती हैं
इन गिरह-सी बँधती दीवारों
पर ख़ुशरंग तस्वीरें भी अजाब हैं
कि
जिन्होंने ताश के महल बनाये
और
काग़ज़ की किश्तियों पर सफ़र
जिंदगी! ऐतबार के कंधे पर सर रखती है
और
झूठ पर पाँव
फिर भी समय का झाँझर बजता है
और
नि:शब्द दुनिया सोती है!