समय का सच/ रविशंकर पाण्डेय

समय का सच

निथरे थिर
पानी में दिखता
साफ समय का सच!

क्या बतलाएं स्वाद
कि कैसे
ये दिन बीते हैं,
मीठे कम
खट्टे ज्यादा
या एकदम तीते हैंय

मुंह में
भरी हुई हो जैसे
तीखी लाल मिरच!

बेलगाम, बिगड़ैल
समय का
अश्वारोही है,
चोर उचक्कों के
चंगुल में
फंसा बटोही हैय

इनकी टेढ़ी चालों से
क्या कोई पाया बच!

हम सब की
रोटी पर रहती
उनकी आंख गड़ी,
जिनके पेट बड़े हैं
उनकी
होती भूख बड़ीय

पाचनमंत्र बांचते ही
ज्यों सब कुछ जाता पच!

कितना निर्मम
कितना निष्ठुर
समय कसाई है,
छल प्रपंच से
मार रहा
भाई को भाई हैय

मांगा दानवीर से
छल कर
कुंडल और कवच!

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