एक चश्मदीद गवाह था
हमारी आँखों पर समय का चश्मा
चश्मदीद आँखों की रोशनी में
नहा रहा था उसके समय का सच
न्यायाधीश के हाथ में जो कलम थी
उसमे भरी थी समय की स्याही
समय की स्याही फैलती जा रही थी
समय के कागज़ पर
समय ने लिखी जो क़िताब
संबिधान की शक्ल में
आलमारी में उसे चाट रही थीं दीमकें
आखिर एक दिन समय ने
खड़ा कर दिया उसे अपने ही कटघरे में
जिरह में किये गए सवाल तय किये थे समय ने
शुरू से आख़िर तक जो चलती रही बहस
उसमें क्या साबित होना था
यही कि चश्मदीद गवाह की आँखों पर
पड़ा चश्मा गवाह का नहीं समय का था
सबूत के तौर पर पेश होती रहीं
किताबें,कलम और कागजात
वे भी समय के थे
सारी ज़िन्दगी जिससे किनाराकशी करते
अपनी आत्मा में
बड़े जतन से बचा रखा था एक अपना सच
इतना हैरान-परेशान हो
आख़िर वह भी समय का निकला