मत दबा समय की चट्टानों के नीचे,
दोनों हाथों तेरी मूरत को खींचे,
चरणों को धोते, आधे से दृग मींचे,
मैं पड़ा रहूँगा तरु-छाया के नीचे,
स्वागत, जग चाहे कितना कीच उलीचे।
मत दबा समय की चट्टानों के नीचे।
रचनाकाल: जबलपुर जेल-१९३०
मत दबा समय की चट्टानों के नीचे,
दोनों हाथों तेरी मूरत को खींचे,
चरणों को धोते, आधे से दृग मींचे,
मैं पड़ा रहूँगा तरु-छाया के नीचे,
स्वागत, जग चाहे कितना कीच उलीचे।
मत दबा समय की चट्टानों के नीचे।
रचनाकाल: जबलपुर जेल-१९३०