Last modified on 29 मई 2010, at 19:40

समय के पार / लीलाधर मंडलोई

सुबह-सुबह एक बच्ची चीखती हैं नींद में
और बंदरगाह पर चढ़ा दिया जाता है खतरे का तीसरा निशान

मछुआरों को हिदायत है बाहर न निकलें
रद्द हो गई हैं उड़ानें और
स्थगित हैं तमाम यात्राएँ

हड़बड़ाहट में हैं माताएं
और पिता दौड़ते हैं बार-बार पुलिन तरफ

जीवन के इस सबसे कारूणिक दृश्‍य में
खुले हैं रेडियो
और तेज हैं प्रार्थनाओं के स्वर

कहीं से नहीं पहुँचती कोई खबर उन तक
मुमकिन है पहुँच रही हों प्रार्थनाएँ

नहीं रहती जब और कोई आस शेष
सृष्टि की आदिम कविताओं में
बची रहती है लोगों की आस
और यह कम आश्‍चर्य नहीं कि
बच निकलता है चपेट से जीवन
बची रहती है शायद इसीलिए
आदिम प्रार्थनाएँ समय के पार सही-सलामत