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समय के सिरहाने / राजेश्वर वशिष्ठ

किसी बच्चे की तरह बैठा हूँ
स्कूल की सीढ़ियों पर
पलट रहा हूँ नोटबुक के पन्ने
जिसमें लिखी हैं
दुःख और विस्मय की
अनुभूत परिभाषाएँ ।

वर्षों में सीख पाया हूँ बस इतना ही ।

कुछ नया सीखने की अब
कोई सम्भावना नहीं
कुछ नहीं बदलता
जीवन के स्थाई भाव में ।

पता नहीं कब बजेगी
छुट्टी की घंटी ?
बहुत उचाट है मन !