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समय के हाशिए / महेश उपाध्याय

दिन उगा
कपड़े पहनकर चल दिए
कहाँ तक झेलें समय के हाशिए

पेट की ख़ातिर हुए मजबूर
ख़ून छोड़ा, हो गए मज़दूर

चल पड़े लम्बी बहर के काफ़िए
चिट्ठियाँ लेकर चलें ज्यों डाकिए ।