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समय रो फेरा / नवीन ठाकुर 'संधि'

तीन मिहना लागै छै जाड़,
भीतरें-भीतरें कांपै छै हाड़।

गेनरा भोथरा बिछाय छीं
कपड़ा लत्ता ओढ़ै छीं
तइयों नै जाय छै देहोॅ रोॅ ठार।

कंबल,चादर, शाल आरो टूस,
है सब जाड़ोॅ लेली छै फूस।

यहेॅ छेकेॅ पछिया हवा रोॅ बाढ़,
बड़ी दुखदायी पछिया हवा रोॅ मार।

कत्तें करै छै हवा बतासें अत,
बूढ़ोॅ-पुरानोॅ रोॅ पुराय छै गत।
कंपाय-कंपाय केॅ मारै छै ठाड़े-ठाड़।

समय रोॅ यहेॅ छेकेॅ फेरा,
पछिया बॉव रोॅ तांडव मरै गरीब मजूरा।

सुनाय छै ‘‘संधि’’ कविता खाड़े-खाड़,
भीतरे-भीतरे कांपै छै हाड़।