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समाज / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बजाए वह वीणा रमणीय,
मधु रतम हो जिसकी झंकार;
मूर्च्छनाओं में हो वह मोह,
मुग्ध हो जिसको सुन संसार।
बताए वह अनुपमतम सूत्र,
सकल पद जिसके हों बहु पूत;
साधनाओं में हो वह मंत्र,
सिध्दियाँ जिसकी हों अनुभूत।
विलसती हो जिसमें सब काल
व्यंजना-लतिका बन छविमान;
खिले हों जिसमें पुलक-प्रसून,
रचे वह रुचिर-भाव-उद्यान।
साधा सीपों को दे बर बूँद
बनाए गौरव मुक्तावान;
करे जीवन-विहीन को पीन
जलद-सम करके जीवन-दान।
कलाएँ उसमें हों अति कांत,
भावनाएँ बहु अनुभवनीय;
कल्पनाएँ इतनी मृदु भूत
भरी हों जिसमें धवनि स्वर्गीय।
सुधाकर-कर-सा बन कमनीय
सजाए सारे सुखकर साज;
सरसता कर वसुधा को दान,
सुधा-रस बरसे सुजन-समाज।