किसलिए
इतने ख़फ़ा हो
क्यूँ नहीं आवाज़ देते
गर्दिशों के गोल में
तन्हाईयों के तंग होते
दायरे दर दायरे
फैलते
चारों तरफ़
तामीर करते
एक ही जैसे
हिसार हिज्र
तुम जो चाहो तो
किनारों से लिपट कर
फूट सकते हो
सर फोड़ सकते हो
चट्टानों से
तुम को तो चट्टानों से हमदम मिले हैं
तुम वहां समझोगे मेरे अल्मिये को
तुम नहीं समझोगे मेरे अल्मिये को
समुन्दर
कौन समझेगा
ज़ब्त की ज़ंजीर हो या
वो सलसिल सब्र की
मुख्तलिफ़ कब
जब है वस्फ़े मुश्तरिक ही बाँधता है
क्यूँ नहीं आवाज़ फिर देते
मुझे
तुम
जिस तरह आवाज़ देता जा रहा हूँ
मैं
हरिक मू-ए-बदन से