Last modified on 21 मार्च 2017, at 10:34

सम्बंध / विजय किशोर मानव

दूर शहर में
बेटे जाते हैं कमाने
जब कभी-कभी आते हैं बेटे
जलसा होता है घर में
और चर्चा पूरे गांव में
जरज जाते हैं-मां-बाप, भाई-बहिन
पुलक भर देता है पूरे घर में
सबके लिए आया सामान।

बेटे वापस जाते हैं
भर जाती हैं सबकी आंखें
जरूर जाता है स्टेशन कोई न कोई
मां का बांधा सामान लेकर
विदा करते हाथ नहीं हिलते
डबडबाती हैं आंखें।

फिर आने लगती हैं चिट्ठियां
स्नेह की, आशीष की, जरूरतों की
कम आते हैं जवाब
बेटों की तरह।

अजनबी बड़े शहर में
खोने लगती हैं चिट्ठियां
तब कोई खास जरूरत
ले जाती है शहर बूढे़ पिता को
देखकर उन्हें
बेटों की आंखों में होता है विस्मय।

पूछा जाता है आने का प्रयोजन
लाचारी बेटों की
छोड़ जाती है उन्हें वापस स्टेशन
राहत की सांस लेता है
शहर का छोटा-सा घर।

खोती रहती है चिट्ठियां
और लिखते रहते हैं पिता
एक के बाद दूसरी
हाल-चाल लिखने की याचना के साथ,
फिर नहीं आती चिट्ठियां
आते हैं बीमार पिता
किसी पड़ोसी बच्चे और मां के साथ।
मां अपनी भरपूर सेवा से सहेजती हैं उन्हें
लेकिन सरक जाते हैं रेत की तरह
उनकी मुट्ठी से
कुछ बच नहीं बचता
बिक जाते हैं खेत
बन जाती है शहर के मकान की ऊपरी मंजिल
प्लास्टर के लिए/झाड़फनूस के लिए
बिकने लगते हैं गहने मां के
और घर गांव का।

घर बिकता है पूरा का पूरा
कोठरी जिसमें मां ने जने थे सातों बच्चे
आंगन किलकारियों सीझा
मनौतियों वाला पूजा का आला
तुलसी चौरा और
द्वार जिस पर परत-दर-परत लगी है
अनगिनत थापें मां के हाथों की।

एक हादसे की तरह
उजड़ जता है नीड़
और कोई चीखता तक नहीं
मां चुप रहती है
चिट्ठियां नहीं आतीं।