सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्स्ना से रंजित होती,
सम्भव था परिमल मालति से ले कर यामिनि मंडित होती!
सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती,
पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती!
सम्भव था वन की वल्लरियाँ कोकिल-कलरव-कूजित होतीं,
राग-पराग-विहीना कलियाँ भ्रान्त भ्रमर से पूजित होतीं;
सम्भव था मम जीवन में गायन की तानें विकसित होतीं,
पर निर्मम नीरव इस ऋतु में नीरव आशा की स्मित होतीं!
सम्भव था नि:सीम प्रणय यदि आँखों से आँखें मिल जातीं,
सम्भव था मेरी पीड़ा भी सुखमय विस्मृति में रल जाती-
सम्भव था उजड़े हृदयों में प्रेमकली भी फिर खिल आती!
किन्तु कहाँ! सम्भाव्य स्मृति से सिहर-सिहर उठती यह छाती!
दिल्ली जेल, अक्टूबर, 1931